window.dataLayer = window.dataLayer || []; function gtag(){dataLayer.push(arguments);} gtag('js', new Date()); gtag('config', 'UA-96526631-1'); 'न्यूज़ डाइट' तय करें | T-Bharat
May 19, 2024

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‘न्यूज़ डाइट’ तय करें

-सुशील उपाध्याय

आप अक्सर हेल्दी डाइट के बारे में सुनते हैं। कभी न्यूज़ डाइट के बारे में सुना है! यकीनन, बहुत कम लोगों ने सुना होगा। यह एक नई टर्म है जो कोरोना के बढ़ते संक्रमण के बीच सामने आई है। इस टर्म को मीडिया जगत से जुड़े लोगों के अलावा मनोवैज्ञानिक भी इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका सामान्य अर्थ यह है कि आपको केवल उतनी ही सूचनाएं या समाचार ग्रहण करने चाहिए जितनी आपको आवश्यकता है। जरूरत से ज्यादा सूचनाएं और समाचार ग्रहण करने पर मानसिक स्तर पर कई तरह की चुनौतियां पैदा हो सकती हैं।
भारत में कोरोना की दूसरी लहर के बाद सूचनाओं का प्रवाह भी बेहद तेजी से और अनियंत्रित ढंग से बढ़ा है। ये सूचनाएं सोशल मीडिया के अलावा मुख्यधारा के मीडिया ( जिसमें टीवी, अखबार, पत्रिकाएं, न्यूज़ पोर्टल आदि सम्मिलित हैं) के माध्यम से भी लोगों तक निरंतर पहुंच रही हैं। इन सूचनाओं में कोरोना के फैलाव के बाद लोगों की मृत्यु, अस्पतालों में इलाज की सुविधा ना मिलने, ऑक्सीजन और दवाएं उपलब्ध न होने या हेल्थ सिस्टम फेल हो जाने के बारे में कई तरह की बातें सम्मिलित हैं। इनके अलावा कोरोना के विभिन्न घरेलू ईलाज या कुछ लोगों के चमत्कारिक रूप से ठीक हो जाने की कहानियां भी इनमें सम्मिलित हैं। चारों तरफ विरोधाभासी सूचनाओं का अंबार लगा हुआ है।
ऐसी ज्यादातर सूचनाएं फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर या व्हाट्सएप के माध्यम से आगे बढ़ रही हैं। यदि मुख्यधारा के मीडिया को देखें तो टीवी चैनलों पर श्मशान घाटों के दृश्य, शवों का अंतिम संस्कार ना हो पाने या दिवंगत व्यक्ति को श्मशान घाट तक पहुंचाने की व्यवस्था ना होने की खबरें लगातार दिखाई जा रही हैं। कई मामलों में किसी व्यक्ति के शव को ठेले पर, साइकिल या मोटरसाइकिल पर रख कर ले जाने वाले दृश्य बेहद विचलित करने वाले हैं। इन सारी सूचनाओं को देखने, सुनने और पढ़ने के बाद किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के मन में एक खास तरह की उदासी और बेबसी का एहसास पैदा होगा। इससे ज्यादातर लोगों का मूड खराब हो जाएगा या उनमें गुस्सा पैदा होगा। इस तरह की खबरों और सूचनाओं के निरंतर संपर्क में रहने के कारण पैदा होने वाली उदासी (मूड डिसऑर्डर या अस्थिर मनस्थिति) डर में बदल जाती है। इसका अगला रूप एंग्जायटी या फिर डिप्रेशन के तौर पर सामने आ सकता है।
बीते साल से दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक-मनोचिकित्सक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कोरोना से जुड़ी बेहद आवश्यक और प्रामाणिक सूचनाओं तक ही सीमित रहना चाहिए। शुरू में, अप्रमाणित सूचनाएं व्यापक स्तर पर लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। धीरे-धीरे इनकी लत लगने जैसी स्थिति पैदा होती है। और अंततः लोग एक ऐसी स्पर्धा में फंस जाते हैं कि कोरोना से जुड़ी हुई सूचनाएं सबसे पहले वे ही सोशल मीडिया या अन्य मीडिया माध्यमों पर प्रसारित करेंगे। इस कारण निरंतर ऐसी सूचनाओं की तलाश रहती है और फिर उन्हें आगे प्रसारित भी किया जाता रहता है।
इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य का अवचेतन निरंतर सूचनाओं को इकट्ठा करता रहता है और कई बार उन्हें एक बड़े डर के रूप में प्रस्तुत करता है। इस सारी प्रक्रिया से यह स्पष्ट है कि हमारी न्यूज़ डाइट असंतुलित है। लोगों ने एक पाठक या दर्शक के तौर पर जरूरत से ज्यादा सूचनाओं का संग्रहण कर लिया है और कर रहे हैं। इसमें भी चिंता की बात यह है कि हमारे द्वारा संग्रहित की गई ज्यादातर सूचनाएं प्रमाणित नहीं है। इनमें काफी बड़ा हिस्सा सुनी-सुनाई बातों का है और ज्यादातर बातें तथ्यात्मक रूप से गलत भी होती हैं। चूंकि ये सारी सूचनाएं निरंतर मस्तिष्क में दर्ज हो रही हैं और इनका प्रवाह अत्यधिक तेज है इसलिए कई बार मस्तिष्क ऐसी स्थिति में नहीं होता कि वह सही और गलत के रूप में इनका विश्लेषण करते हुए गलत सूचनाओं को खारिज कर सके।
अत्यधिक सूचनाओं के तीव्र भंडारण की प्रक्रिया भी मस्तिष्क के भीतर जटिल स्थिति पैदा करती है। मनोवैज्ञानिक रूप से इसे कनफ्लिक्ट या द्वंद्व के रूप में भी देख सकते हैं। यह द्वंद्व जब बेहद उच्च स्तर पर पहुंच जाता है तो मस्तिष्क द्वारा कई तरह के हार्मोन रिलीज किये जाने लगते हैं। सूचनाओं के इस प्रवाह में मस्तिष्क को लगता है कि हम किसी खतरे की जद में है इसलिए वह बचाव से संबंधित मैकेनिज्म को सक्रिय कर देता है। एक आम पाठक या जागरूक व्यक्ति के नाते यह समझने की आवश्यकता है कि जब मस्तिष्क हमें बचाने की प्रक्रिया शुरू कर रहा होता है तो उसके मूल में अवांछित सूचनाओं का वह अंबार है, जिसे हम लगातार बढ़ाते जा रहे होते हैं।
अब प्रश्न यह है कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए ? बहुत सारे लोग सोशल मीडिया माध्यमों पर इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि वे इन दिनों मुख्यधारा के टीवी चैनलों को नहीं देख रहे हैं या समाचार-पत्र नहीं पढ़ रहे हैं, लेकिन ऐसा किए जाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि एक विशेष प्रकार के संतुलन की जरूरत है। यदि सूचनाओं से पूरी तरह कट जाएंगे तो मस्तिष्क में तब भी बेचैनी का आलम रहेगा। क्योंकि हमारी पुरानी ट्रेनिंग लगातार सूचनाएं प्राप्त करने और खुद को अपडेट रखने की है। ऐसे में, सबसे बेहतर यह है कि सूचनाओं के प्रामाणिक माध्यमों पर ही केंद्रित रहा जाए। इस मामले में सरकारी टीवी चैनलों, सरकारी वेबसाइटों और बड़े चिकित्सा संस्थानों द्वारा जारी बुलेटिनों एवं सूचनाओं तक सीमित रहना ही उचित होगा।
यदि आप किसी ऐसे व्हाट्सएप ग्रुप या सोशल मीडिया ग्रुप में सम्मिलित हैं, जहां निरंतर किसी न किसी व्यक्ति के मरने या किसी व्यक्ति की हालत खराब होने के बारे में सूचनाएं आ रही हैं तो ऐसे ग्रुप से तत्काल अलग होने की आवश्यकता है। इसकी तुलना में ऐसे ग्रुप में सम्मिलित होना ज्यादा उपयोगी होगा जिसके माध्यम से बीमार लोगों की मदद की जा रही है। इससे एक तो जरूरी सूचना ही मिलेंगी और दूसरे, मन में विशिष्ट प्रकार की आश्वस्ति पैदा होगी कि हमने इस कठिन वक्त में किसी जरूरतमंद व्यक्ति की मदद की है। इसी संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी भी अप्रामाणिक और अपुष्ट सूचना को अपने स्तर से आगे प्रसारित न करें। यदि वह सूचना गलत निकलती है अथवा इसके कारण किसी को कोई नुकसान हो जाता है तो इससे हमारे भीतर ग्लानि का भाव पैदा होगा। यह भाव कहीं ना कहीं अपराधबोध को बढ़ाएगा। इस कारण भी मानसिक रूप से संतुलित बने रहने में चुनौती पैदा होगी।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है हर व्यक्ति को अपने स्तर पर ही तय करना होगा कि वास्तव में उसे किन सूचनाओं की आवश्यकता है और किनकी आवश्यकता नहीं है। चूंकि सूचना प्राप्त करने का मूल मकसद है- जागरूक बने रहना, शिक्षित होना और अपनी राय बनाने के लिए आवश्यक तथ्य प्राप्त करना। यदि सूचनाओं और खबरों से उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो रही है तो फिर वे उपयोगी सूचनाएं नहीं हैं।
यदि आप अति संवेदनशील व्यक्ति हैं तो सूचनाओं के इस प्रवाह से खुद को अलग रखना बेहद आवश्यक है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो न्यूज़ बुलेटिन देखे बिना अथवा समाचार-पत्र पढ़े बिना सहज महसूस नहीं करते। ऐसे लोगों को यह अवश्य तय करना चाहिए कि वे पूरा दिन न्यूज़ चैनल अथवा समाचार-पत्रों या न्यूज़ वेबसाइट-पोर्टलों के संपर्क में नहीं रहेंगे, बल्कि कुछ खास अवधि में ही समाचार बुलेटिन देखेंगे अथवा समाचार-पत्र पढ़ेंगे।
मनोवैज्ञानिक लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि जो लोग पहले से किसी तरह के स्ट्रेस, एंग्जायटी अथवा डिप्रेशन का शिकार हैं और संबंधित दवाएं ले रहे हैं तो उन्हें उन बातों को चिन्हित करने की आवश्यकता है जो नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही हैं। कोरोना की वर्तमान परिस्थितियों में न्यूज़ के रूप में आ रही सूचनाएं भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करने की बड़ी वजह बनती दिख रही हैं। इसलिए यह तय किया जाना बेहद आवश्यक है आपकी न्यूज़ डाइट कितनी हो, आपको कितनी सूचनाओं की जरूरत है और किन सूचनाओं की आपको बिल्कुल आवश्यकता नहीं है।
यदि फेसबुक, इंस्टाग्राम या व्हाट्सएप आदि माध्यमों पर विजिट करते हुए आपको कुछ ऐसे लोगों के बारे में सूचना मिलती, जिन्हें आप जानते नहीं हैं लेकिन उनकी मृत्यु का विवरण इन माध्यमों पर दिया गया है तो इससे भी मस्तिष्क पर नकारात्मक रूप से असर पड़ेगा ही। इसका सीधा अर्थ यह है कि ये सूचनाएं फिलहाल आपके लिए उपयोगी नहीं हैं। अपनी न्यूज़ डाइट का निर्धारण करते हुए केवल मुख्यधारा के मीडिया माध्यमों और सोशल मीडिया माध्यमों से ही सतर्क नहीं रहना है, बल्कि यह भी देखना है कि आपके मित्रों के दायरे अथवा संपर्क के लोगों में ऐसे कितने व्यक्ति हैं जो निरंतर नकारात्मक सूचनाएं पहुंचाते हैं अथवा शेयर करते हैं। ऐसे लोगों के मामले में भी सावधानी की आवश्यकता है क्योंकि इस तरह की सूचनाएं पहले से मौजूद डर को और बढ़ा देती हैं।
यहां एक प्रश्न यह भी है कि जब हम अपनी न्यूज़ डाइट का निर्धारण करते हुए बहुत सारी सूचनाओं को अपने पास आने से रोकते हैं या कम मात्रा में आने देते हैं तो फिर इनके स्थान पर हमारे पास किस तरह की सूचनाएं होनी चाहिए ! इसका सीधा सा उत्तर यह है कि जब आप लॉकडाउन या कर्फ्यू के वक्त अपने घर के दायरे में सीमित हों, तब आपको अपनी पसंद के मनोरंजन पर ध्यान देना चाहिए। जो फिल्म के रूप में हो सकता है या आप इन्फोटेनमेंट चैनल देख सकते हैं, पुरानी पॉलीटिकल डिबेट या भाषण सुन सकते हैं अथवा अपनी पसंद का साहित्य पढ़ सकते हैं।
मीडिया इस वक्त जो कार्य कर रहा है, वह उसकी पेशेगत जिम्मेदारी और दायित्व हो सकता है। वह केवल इसलिए सूचनाओं का प्रवाह नहीं रोक सकता कि उससे कुछ लोग नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में, यह समझने की आवश्यकता है कि हम सभी मीडियाकर्मी के तौर पर कार्य नहीं कर रहे हैं। जो लोग मीडिया के पेशे में हैं, सूचनाओं के सतत प्रवाह के साथ जुड़े रहना उनकी बाध्यता हो सकती है, लेकिन यह बाध्यता किसी पाठक अथवा आम दर्शक की नहीं है। इसलिए एक न्यूज़ कंजूमर के रूप में अपनी न्यूज़ डाइट तय करने का अधिकार हमारा ही है और यह उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि हेल्दी डाइट।

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